Friday, May 31, 2019

"خواجة ابراهيم" يحجز مكانه على موائد الإفطار في رمضان

لكن "خواجة ابراهيم" هذا ليس بأكثر من مشروب محبب لدى البحرينيين يتناولونه عندما ترتفع درجات الحرارة نظراً لتأثيره المنعش.
كما يزداد هذا المشروب رواجاً في شهر رمضان. وعلى ما يبدو أن البعض اقترن في ذهنه هذا المشروب بشهر رمضان تحديداً الأمر الذي يرجح الاهتمام اللافت به قبيل حلوله.
ويُعرف المشروب خارج البحرين بأسماء عدة منها: البلنكو أو البلنجو أو البريهوا.
أسماء عديدة لمشروب واحد لكن يبدو أن "خواجة ابراهيم" هو الاسم الأكثر إثارةً للفضول والاستغراب على الأقل بالنسبة لهذه المستخدمة.
ولا يستطيع أحد أن يجزم بالسبب وراء تسمية المشروب بهذا الاسم ولكن هناك ما يشبه الإجماع بأن المشروب "إيراني" الأصل.
ويتميز المشروب في البحرين عن غيره من المناطق باستخدام "ماء اللقاح" المستخرج من "طلع النخيل" لتحضيره.
ورغم تعدد الأسماء والفروقات البسيطة من دولة لأخرى، فإن المشروب ببساطة عبارة عن سائل هلامي القوام يتم الحصول عليه بوضع بذور الريحان أو الحبق السوداء الجافة في الماء ثم تحليته بالسكر إلى جانب ماء الزهر أو الزعفران وذلك حسب الرغبة.
وتضاف للمشروب مكعبات الثلج أو يشرب بارداً. ويفضل البعض استبدال الماء بالعصائر الطبيعية وهذه هي النسخة التجارية من هذا المشروب التقليدي.
ومن السهل تخمين فوائد هذا المشروب بالنظر إلى مكوناته؛ ناهيك عن تأثيره المنعش سيما في درجات الحرارة العالية.
ولكن الإكثار من هذا المشروب قد يكون له أضرار صحية، إذ تذكر بعض المراجع أن شربه بكثرة قد يؤدي إلى تدني مستوى السكر في الدم كما يُحظر تناوله للحوامل نظراً لاحتوائه على مواد تزيد من اتساع الرحم وتحول دون تخثر النزيف في حال وقوعه. ولذلك لا يُنصح بتناوله قبيل الخضوع لعملية جراحية كما يُمنع تناوله لمن يعانون من انخفاض ضغط الدم.
أما النسخة الأكثر صحية من هذا المشروب (وربما الأسهل تحضيراً لمن يتعذر عليه الوصول لبذور الريحان والحبق) فهي منقوع بذور الشيا الخالي من السكر. وتُصنف بذور الشيا ضمن الأطعمة المعروفة باسم "سوبر فوود" أي الأطعمة الخارقة نظراً لفوائدها الجمة.
الصوم هو أحد أركان الدين الإسلامي الخمسة، لكنه قديم ويعود لزمن سبق ظهور الإسلام. في ما يلي لمحة تاريخية عن الصوم في بعض أديان المنطقة وحضاراتها.
كانت الزرادشتية منتشرة في بلاد فارس وما حولها منذ أكثر من ثلاثة آلاف عام قبل الميلاد. أما في الوقت الراهن فيتوزع معتنقو هذه الديانة في العراق وسوريا وتركيا وإيران والهند وأفغانستان وأذربيجان ومناطق متفرقة أخرى.
وتنُسب الزرادشتية إلى زرادشت الذي بقيت أفكاره لفترة طويلة مرجعاً دينياً خلال تلك الحقبة، قبل أن تتراجع مع ظهور ديانات أخرى.
وكان الصوم لدى الزرادشتيين محرماً لأنه كان يقلل من طاقة الإنسان على العمل وخوفاً من إصابته بالمرض وبالتالي ترك آثار سلبية على المجتمع.
أما الصوم لدى الإيزيديين فهو مقدس ومدته ثلاثة أيام، يبدأ يوم الثلاثاء وينتهي يوم الخميس بحسب تقويمهم. ويسبق التقويم الإيزيدي التقويم الشمسي مدة 11 يوماً، و يسبق الأخير التقويم الغربي بـ 13 يوماً.
ويبدأ الصوم بالامتناع عن الطعام عند شروق الشمس ويأكلون بعد المغيب، أما رجال الدين القدماء فكانوا يصومون لمدة ثلاثة أيام متتالية ولا يفطرون إلا في يوم العيد الذي يسمى "عيد ئيزي".
والصوم عند الإيزيديين نوعان، صوم عامة الناس وصوم النخبة (رجال الدين). ويعفى منه الأطفال والمعاقون عقلياً والمرضى .
ويستمر صوم النخبة الذي يلتزم به رجال الدين وبعض الفقراء من أصحاب النذور، أغلب أيام السنة بما فيها أربعينيتا الشتاء والصيف، وهو اختياري وغير ملزم لعامة الناس إلا لمن أراد التعبد والتقرب إلى ربه أكثر.
وهناك نوع آخر من الصوم يدعى "صوم خودان" وهو خاص بالأولياء والنساك ومن أراد ذلك من عامة الناس. وجرت العادة أن يتباهى من يصوم أياماً أكثر.
رغم أن الديانات والمعتقدات والأفكار الدينية ترجع إلى آلاف السنين قبل الميلاد، إلا أن معظم شعوب الشرق الأوسط تعترف بثلاث ديانات تعرف باسم "الديانات السماوية أو الإبراهيمية".
وتعد الديانة اليهودية أولى الديانات الإبراهيمية، وبحسب كتاب اليهود، التوراة، يجب الصوم فقط في يوم كيبور (الغفران)، وهو اليوم الذي نزل فيه النبي موسى من سيناء للمرة الثانية، ومعه ألواح الشريعة.
ويستمر يوم الغفران مدة 26 ساعة وهو "أقدس أيام الأعياد والشعائر الدينية اليهودية".
في هذا اليوم ينأى فيه اليهود عن ملذات الحياة والأمور الدنيوية ويكرسونه للعبادة ومحاسبة الذات.
ويصوم الناس مع غروب الشمس حتى حلول الظلام في اليوم التالي تقرباً إلى الله ليغفر لهم ذنوبهم وخطاياهم.
أما المتدينون من اليهود، فيذهبون إلى حائط البراق (حائط المبكى) في جنوبي المسجد الأقصى من أجل الصلاة قبل بدء بالصوم.
ومن بين القواعد التي يتبعها اليهود، لا صوم أيام السبت، أو في أيام المهرجانات أو الاحتفالات الدينية، أما يوم الغفران فهو استثناء من هذه القواعد، ولا صوم في شهر نيسان/ أبريل أو للمرضى أو للحوامل.
وهناك تفسيرات حديثة لليهودية، توجب على الحاخام أو المعلم أو رجل الأمن أو المسؤولين من أصحاب القرارات، عدم الصوم كي لا يتأثر أداؤهم لواجباتهم.
كما أن هناك صوماً آخر غير ملزم وهو اختياري كمن يصوم لنيل مراده أو للتكفير عن خطاياه أو لطلب الرحمة من الرب أو الشكر على نعمة أو غيرها من الأسباب التي لا تستلزم الإعلان عنها من قبل الصائم.
الصوم لدى المسيحيين كباقي الديانات هدفه التقرب إلى الله طلباً للمغفرة . وعادة ما تجتمع الصلاة مع الصيام لمن يلتزم به.
ويصوم المسيحي محبة بالله ورغبة في التقرّب منه، وجاء في سفر دانيال "فوجهت وجهي إلى الله السيد طالباً بالصلاة والتضرعات وبالصوم والمسح والرماد".
وللصّوم مكانة كبيرة لدى المسيحيين، فهو ارتباط روحي بالرب والتزام منهم بتعاليم المسيح منذ نشأته حتى ظهوره ثانيةً كدليل إيمان به.
لم يحدد الإنجيل أوقاتاً أو شهورأً ثابتة للصيام، بل تقوم كل طائفة أو كنيسة بتحديد موعد الصوم لأتباعها. ولا توجد طريقة أو أوقات محددة للصوم يتبعها المسيحيون في مختلف أنحاء العالم، بل هناك اختلافات بين الطوائف المسيحية.
وتحدد الكنيسة موعد الصوم قبل عيد الفصح بأربعين يوماً، وحسب تقاليد كل كنسية.
ويمتنع المسيحيون عن تناول الطعام مدة أثنتي عشرة ساعة في اليوم على الأقل، من بداية اليوم وحتى انقضاء المدة، وهذه ليست قاعدة ثابتة، فهناك مسيحيون يصومون وقتاً أطول.
مارس المصريون القدماء العديد من الطقوس بهدف التقرب من الآلهة ونيل رضاها وشكرها، مثل الاحتفال بأعياد كعيد الربيع وعيد الحصاد وعيد وفاء النيل لتطهير النفوس من الذنوب والأخطاء التي قد تغضب الآلهة، مما يوجب عليهم طلب الغفران ونيل بركات ونعم الآلهة بطقوس مختلفة، ذكر باحثون أن الصوم من بينها.
لكن الصوم عند المصريين القدماء مختلف عليه بين علماء الآثار والباحثين، فمنهم من يشير إلى ممارسة طقوس خاصة من قبل الكهنة فقط، وآخرون يتحدثون عن طقوس صوم يمارسها عامة الناس. لكن بينهم من يُبعد صلة تلك الطقوس بالصيام باعتبار أن السياق الذي تمارس فيه لا علاقة له بالصوم كما في الأديان السماوية.
كان الصوم، حسب بعض الباحثين، يبدأ من طلوع الشمس إلى غروبه. أما فتراته فيعتقدون أنها مختلفة وتتراوح بين ثلاثة أيام إلى 70 يوماً يمتنع خلالها ممارسوها عن الطعام والشراب والجماع.
وفقا للبعض، هناك عيد للصوم مخصص لإرضاء أرواح الأموات المحرومين من الطعام. ويعتقد البعض الآخر أن هناك نوعاً آخر من الصوم لا يسمح فيه بتناول الطعام باستثناء الماء والخضروات لمدة 70 يوماً.

Wednesday, May 22, 2019

पश्चिम बंगाल: चुनावी राजनीति में धर्म का ‘तड़का’?

दो घंटे की देरी से तेजस्वी यादव का हेलिकॉप्टर जब मंडराने लगा और अचानक से पंडाल की भीड़ बढ़ गई. ज्यादा से ज्यादा लोग तेजस्वी के क़रीब पहुंचने की कोशिश करते हैं और ना पहुंचने पर मोबाइल से फोटो बनाने की कोशिशें.
तेजस्वी यादव ने मंच पर आते ही, सबसे पहले लोगों को देरी की वजह बताई. उन्होंने कहा कि उन्हें पटना से ही उड़ान भरने की अनुमति नहीं मिल रही थी. उन्होंने फिर से दोहराया कि उनके पिता को किस तरह से फंसाकर जेल में रखा जा रहा है. उन्होंने लोगों से ये भी कहा कि ये ग़रीबों के एकजुट होने की लड़ाई है.
तेजस्वी बहुत नहीं बोले और अंत में लोगों से रघुवंश बाबू को जिताने की अपील करते हुए कहा कि पहले से लेट हो चुका हूं और आगे कई सभाएं करनी हैं.
इस सभा में शामिल होने वाले ज्यादातर लोग आरजेडी के समर्थक नज़र आए. एक युवा ने कहा, ''मोदी जी अब विकास की बात नहीं कर रहे हैं, विनाश की बात कर रहे हैं.''
रैली में आई एक महिला ने कहा, ''नरेंद्र मोदी जी ने हमरा सब के आग लगा के मुआ देलकिन. कौनो काम नहीं हो रहल. वोट देबए ताकि लालू जी को जेल से निकाले जेतिन ताकि हमरा सब के ज़िंदा रखतिन.''
वैशाली की छह में से तीन विधानसभा सीटों पर आरजेडी के विधायक हैं और तीनों के तीनों यादव हैं.
रघुवंश प्रसाद सिंह को भरोसा है कि 12 मई को चुनाव के दिन महागठबंधन के पक्ष में ये सब लोग मतदान करेंगे. वे कहते हैं, ''मोदी सरकार ने लोगों को क्या दिया है, केवल झूठ बोलने और थेथरई करने से लोग बार बार नहीं ठगाएंगे.''
रघुवंश बाबू ये भी दावा करते हैं कि देश भर में नरेंद्र मोदी और बीजेपी के ख़िलाफ़ विपक्ष का गठबंधन बन जाएगा, उसमें कोई मुश्किल नहीं होगी.
वहीं दूसरी ओर वीणा देवी को भी भरोसा है कि बीजेपी के सवर्ण समर्थकों के साथ-साथ राम विलास पासवान की पार्टी के अपने वोट बैंक के चलते वह आसानी से चुनाव जीत जाएंगी.
वैसे परंपरागत तौर पर दो ऐसी बातें भी वैशाली से जुड़ी हैं जो रघुवंश प्रसाद सिंह को परेशानी में डालने वाली हैं. एक तो वैशाली महिलाओं के लिए पसंदीदा चुनाव मैदान रहा है. यहां से चार बार महिलाएं लोकसभा में पहुंचने में कामयाब रही हैं.
इन चार में तीन बार तो महिलाओं के बीच ही आमने-सामने की टक्कर थी. 1980 और 1984 का चुनाव किशोरी सिन्हा ने जीता था, जबकि 1989 में जनता दल की उषा सिन्हा और 1994 में बीजेपी के टिकट पर लवली आनंद ने चुनाव जीता था.
इसके अलावा एक और बात है, यहां एक बार चुनाव हारने वाले दिग्गज नेताओं का सियासी करियर संकट में आ जाता है. उनके लिए सक्रिय राजनीति में फिर से जगह बना पाना मुश्किल होता आया है. तारकेश्वरी सिन्हा, ऊषा सिन्हा, किशोरी सिन्हा, नवल किशोर सिंह और वृषण पटेल जैसे नेता हार के बाद वापसी नहीं कर पाए.
ऐसे में 2014 का चुनाव हार चुके रघुवंश बाबू के सामने इस इतिहास को बदलने का दारोमदार भी होगा.
रघवुंश प्रसाद सिंह के पक्ष में एक अच्छी बात ये है कि पांच बार सांसद रहने और वैशाली के लिए बहुत कुछ नहीं कर पाने के बावजूद उनकी छवि बेदाग़ बनी हुई है और लोग उन्हें सम्मान से देखते हैं.
वहीं दूसरी ओर बीजेपी की विधायक रहीं वीणा देवी जेडीयू के एमएलसी दिनेश चंद्र सिंह की पत्नी हैं. उनका नामांकन रद्द कराने के लिए रघुवंश प्रसाद सिंह पिछले दिनों ज़िलाधिकारी दफ्तर के सामने धरने पर भी बैठ गए थे. वीणा देवी पर आपराधिक जानकारी छुपाने का आरोप था.
वीणा देवी इस मुद्दे पर कहती हैं, ''ऐसा रघुवंश प्रसाद हार के डर से कर रहे थे और मैं तो 1991 से सक्रिय राजनीति में हूं, इतने लंबे समय तक तो किसी ने ऐसे आरोप मुझ पर नहीं लगाए थे.''
वैसे वीणा सिंह के पति दिनेश चंद्र सिंह पर भी कई आरोप लगते रहे हैं. दिनेश चंद्र सिंह एक दौर में रघुवंश बाबू के चुनाव प्रबंधन का काम भी देखा करते थे. लिहाज़ा उन्हें ये तो पता होगा कि सेंधमारी कैसे की जा सकती हैं.
तो साफ़ है कि वैशाली के चुनाव में वो सब समीकरण गड्मड् हो जाते हैं, जो बिहार की बाक़ी सीटों का रुझान बताने के लिए कहे-सुने जा रहे हैं. इसे आप चाहें तो विश्व के पहले लोकतंत्र की ख़ूबसूरती मान लें चाहें तो बिहार की पॉलिटिक्स का वो कॉकटेल, जिससे राजनीतिक पंडितों का दिमाग़ चकरा सकता है.